UPSC में हिंदी मीडियम से Rank-1 क्यों नहीं आता


UPSC की परीक्षा में हिंदी मीडियम के छात्र क्या पिछड़ रहे हैं? हर साल जब भी परीक्षा के परिणाम घोषित होते हैं तो ऐसा लगता है कि टॉप करने वाले सारे स्टूडेंट्स इंग्लिश मीडियम से ही हैं। हाँ, कभी कभी किसी साल में ऐसा भी होता है जब तो टॉप 30 में तीन चार स्टूडेंट्स हिन्दी मीडियम के होते हैं। लेकिन फिर भी जिस देश की आधे से अधिक आबादी हिन्दी बोलती, समझती और पढ़ती है वहाँ पर यूपीएससी जैसी प्रतिष्ठित परीक्षा में सफल होने वाले अधिकांश स्टूडेंट्स इंग्लिश मीडियम के होते हैं। तो आखिर क्यों हिन्दी मीडियम के स्टूडेंट्स इस परीक्षा में अक्सर पीछे रह जाते हैं? जानेंगे आज के Blog में।

LBSNAA की वेबसाइट पर मौजूद आंकड़ों के अनुसार, 2015 और 2016 की परीक्षा में हिंदी मीडियम वालों की सफलता दर लगभग 4-5 प्रतिशत रही, लेकिन 2017 और 2018 की परीक्षा में ये आंकड़ा फिर से 2-3 प्रतिशत के बीच पहुंच गया। 2017 की परीक्षा के जो नतीज़े 2018 में आए उनमें हिंदी मीडियम का टॉप रैंक 337 रहा. इस वजह से सामान्य श्रेणी के तहत हिंदी मीडियम से परीक्षा देनेवाला एक भी कैंडिडेट आईएएस, आईपीएस या आईआरएस नहीं बन सका।

यूपीएससी 2014 की परीक्षा में 13वां और हिंदी माध्यम में प्रथम स्थान पाने वाले निशांत जैन इस ट्रेंड के बारे में कहते हैं- "टॉप रैंक में हिन्दी माध्यम की पहुंच कम होती जा रही है। जबकि हर साल संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा देने वाले विद्यार्थियों में हिन्दी और भारतीय भाषाओं के माध्यम से परीक्षा देने वालों की एक बड़ी संख्या होती है।

हिंदी माध्यम से तैयारी करने वाली छात्रा मुमताज़ का कहना है कि प्रश्न समझ पाना ही मुश्किल होता है। प्रारंभिक परीक्षा के साधारण ज्ञान व सीसैट वाले पेपर में कई प्रश्न सिलेबस से बाहर के होते हैं। हिंदी भाषा ऐसी होती है कि बिना अंग्रेजी में प्रश्न पढ़े समझ में ही नहीं आता।

अमूमन सरकारी स्कूलों और कॉलेज की पढ़ाई हिंदी में होती है। जबकि सिविल सेवा में आईआईटी व एमबीए के टॉप संस्थानों के छात्र भी आते हैं। जाहिर तौर पर मुकाबला असमान स्तर पर होता है। इसका असर परिणाम में दिखता है। कोचिंग संस्थान सालों पुराने मैटेरियल का इस्तेमाल करते हैं। 1200-1200 तक का इनका एक बैच होता है। ऐसे में छात्रों की पढ़ाई गुणवत्तापूर्ण नहीं हो पाती। कोचिंग में बताया जाता है कि किताब की जगह संस्थान के नोट्स पढ़ो। इससे जानकारी का स्तर एक दायरे में सिमट जाता है। जबकि यूपीएसएस की परीक्षा का दायरा असीमित होता है।

अन्य विशेषज्ञों की माने तो हिन्दी मध्यन्म के स्टूडेंट्स से सामने और भी कई चुनौतियाँ है –


• हिंदी के प्रतिभागियों की अनेकों चुनौतियां हैं।

• हिंदी के दुर्लभ शब्दों के बीच से बाहर निकल पाना प्रतिभागियों के लिए आसान नहीं।

• हिंदी के प्रतिभागियों का मुकाबला ऐसे अभ्यर्थियों से होता है, जिसने टॉप 20 कॉलेज व यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की है। 

• प्रतिभागी सिविल सेवा में चयनित होने के लिए कोचिंग संस्थानों का सहारा लेते हैं, लेकिन इनके भी शिक्षक लीक से नहीं हटते। 

• वह पढ़ाई सिविल सेवा के पाठ्यक्रम के इर्द-गिर्द करवाते हैं। जबकि परीक्षा में सवाल कई बार बाहर से आते हैं। 

• रैंकिंग सुधारने लिए करीब 50 फीसदी प्रतिभागी होते पूर्व चयनित, नए प्रतिभागियों की बढ़ती दिक्कत। 

• कोचिंग खत्म करके घर पर तैयारी करने वाले छात्र नहीं हो पाते अपडेट। 

• कई कोचिंग के 500 से अधिक के एक बैच में हर प्रतिभागी पर शिक्षक का नहीं रहता ध्यान जबकि इस परीक्षा के लिए एक-एक उम्मीदवार को तराशने की आवश्यकता होती है।

हालांकि ऐसा नहीं है कि सरकार इस समस्या से पूरी तरह अनभिज्ञ है। समय समय पर सरकार के लोग यूपीएससी के साथ इस पर चिंतन मनन भी करते रहे हैं और धीरे धीरे एक सकरत्मक बदलाव दिख भी रहा है लेकिन फिर भी यह बदलाव बहुत ही धीमा है और इसका नुकसान अंततः हिन्दी माध्यम के स्टूडेंट्स को ही उठाना पड़ रहा है।