कैसे बना ताइवान दो सुपर पावर देशों के झगड़े की वजह
चीन की
धमकी के बाद भी अमेरिका की हाउस स्पीकर नैंसी पेलोसी न सिर्फ ताइवान के दौरे पर
गईं बल्कि वहां पहुंचते ही ताइवान को हर हाल में अमेरिकी समर्थन का ऐलान भी कर
दिया | मंगलवार शाम नैंसी
पेलोसी को लेकर अमेरिका का मिलिट्री जेट राजधानी ताइपेई में लैंड हुआ | इसके बाद से ही चीन अपने अक्रमाक रूप में आया हुआ है | इस दौरान ही चीन ने ताइवान के
चारों तरफ घेरा लगा दिया है | साथ ही चीन की आर्मी ने मिलीट्री
ड्रिल भी शुरू कर दी हैं | तो ऐसे में आइए जानते हैं कि आखिर
ताइवान दो सुपर पॉवर्स देशों के झगड़े की वजह कैसे बना |
चीन
मानता है कि ताइवान उसका एक प्रोविंस है, जबकि ताइवान खुद को एक आजाद देश मानता है | इस झगड़े को समझने के लिए दूसरे विश्वयुद्ध के बाद के वक्त में जाना होगा
| उस समय चीन के मेनलैंड में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और
कुओमितांग के बीच जंग चल रही थी | 1949(उनचास) में माओत्से
तुंग की लीडरशिप में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी जीत गई और कुओमितांग के लोग मेनलैंड
छोड़कर ताइवान चले गए | कम्युनिस्टों की नौसेना की ताकत न के
बराबर थी | इसलिए माओ की सेना समंदर पार करके ताइवान पर
नियंत्रण नहीं कर सकी |
वहीं अब
चीन का दावा है | कि
1992(बानबे) में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और ताइवान की कुओमितांग पार्टी के बीच एक
समझौता हुआ | इसके मुताबिक दोनों पक्ष एक चीन का हिस्सा हैं
और राष्ट्रीय एकीकरण के लिए मिलकर काम करेंगे | हालांकि
कुओमितांग की मुख्य विपक्षी डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी 1992(बानबे) के इस
समझौते से कभी सहमत नहीं रही |
शी
जिनपिंग ने 2019 में साफ कर दिया कि वो ताइवान को चीन में मिलाकर रहेंगे | उन्होंने इसके लिए 'एक देश दो सिस्टम' का फॉर्मूला दिया | ये ताइवान को स्वीकार नहीं है और वो पूरी आजादी और संप्रभुता चाहता है |
अमेरिका-चीन के बीच ताइवान बना फ्लैश पॉइंट
अमेरिका
ने 1979(उनासी) में चीन के साथ रिश्ते बहाल किए और ताइवान के साथ अपने डिप्लोमैटिक
रिश्ते तोड़ लिए | हालांकि चीन के ऐतराज के बावजूद अमेरिका ताइवान को हथियारों की सप्लाई
करता रहा | अमेरिका भी दशकों से वन चाइना पॉलिसी का समर्थन
करता है, लेकिन ताइवान के मुद्दे पर अस्पष्ट नीति अपनाता है |
राष्ट्रपति जो बाइडेन फिलहाल इस पॉलिसी से बाहर जाते दिख रहे हैं | उन्होंने कई मौकों पर कहा है कि अगर ताइवान पर चीन हमला करता है तो
अमेरिका उसके बचाव में उतरेगा | बाइडेन ने हथियारों की
बिक्री जारी रखते हुए अमेरिकी अधिकारियों का ताइवान से मेल-जोल बढ़ा दिया |
इसका असर
ये हुआ कि चीन ने ताइवान के हवाई और जलीय क्षेत्र में अपनी घुसपैठ आक्रामक कर दी
है | जानकारी के मुताबिक चीन की सैन्य क्षमता इस हद
तक बढ़ गई है कि ताइवान की रक्षा में अमेरिकी जीत की अब कोई गारंटी नहीं है | चीन के पास अब दुनिया की सबसे बड़ी नौसेना है और अमेरिका वहां सीमित जहाज
ही भेज सकता है |
अगर चीन
ने ताइवान पर कब्जा कर लिया तो पश्चिमी प्रशांत महासागर में अपना दबदबा दिखाने
लगेगा | इससे गुआम और हवाई
द्वीपों पर मौजूद अमेरिका के मिलिट्री बेस को भी खतरा हो सकता है |
भारत पर
पड़ेगा क्या असर?
भारत के
अमेरिका के साथ हमेशा से मज़बूत रिश्ते रहे हैं | चीन का मुक़ाबला करने के लिए एशिया में भारत अमेरिका
का अहम सहयोगी है | इस साल मई में आसियान का विशेष सम्मेलन
अमेरिका के वॉशिंगटन में हुआ, वो एशिया पैसिफिक क्वाड अलांयस
को भी फिर से जिंदा करना चाहता है | इस दौरान अमेरिका ने
खुलकर भारत के साथ रिश्ते मज़बूत करने के संकेत भी दिए हैं |
ऐसे में अगर चीन और अमेरिका के बीच तनाव बढ़ता है तो उसका असर भारत पर पड़ने की आशंका
भी ज़ाहिर की जाती रही है |
भारत के
लिए अहम ये नहीं है कि चीन और अमेरिका बात कर रहे हैं | भारत के लिए अहम ये है कि
चीन ने जिस तरह से अमेरिका को स्पष्ट कहा है कि ताइवान के मामले में वो किसी को
दख़ल नहीं देने देगा | इससे भारत के लिए संकेत ये है कि चीन
अपने और भारत के तनाव में भी किसी को दख़ल नहीं देने देगा |