गौतम बुद्ध का जन्म लुंबिनी में 563 ईसा पूर्व इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय शाक्य कुल के राजा शुद्धोदन के घर में हुआ था। उनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उनकी माँ का नाम महामाया था, जो कोलीय वंश से थीं, जिनका देहावसान सिद्धार्थ के जन्म के सात दिन बाद हो गया था। सिद्धार्थ का लालन-पालन महारानी की छोटी सगी बहन महाप्रजापति गौतमी ने किया। सिद्धार्थ विवाहोपरांत अपने नवजात शिशु राहुल और धर्मपत्नी यशोधरा को त्यागकर संसार को जरा, मरण एवं दुःखों से मुक्ति दिलाने के मार्ग तथा सत्य व दिव्य ज्ञान की खोज में रात्रि में राजपाट का मोह त्यागकर वन की ओर चले गए। वर्षों की कठोर साधना के पश्चात् बोध गया (बिहार) में बोध‌ि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे सिद्धार्थ गौतम से भगवान् बुद्ध बन गए। 

1. सारा दुःख मन का है

हम सभी जीवन में दुःखी हैं और जब हमें दुःख पकड़ता है तो हम पूछते हैं, ‘किसने दुःख पैदा किया? कौन मेरा दुःख पैदा कर रहा है—पत्नी, पति, पुत्र, पिता, मित्र, समाज? आर्थिक व्यवस्था, सामाजिक ढाँचा?’

सब क्रांतियाँ व्यर्थ हो गई हैं; सिर्फ बुद्ध की एक क्रांति अभी भी सार्थकता रखती है। बुद्ध कहते हैं, “तुम्हारे मन में ही कारण है। बाहर खोजने गए, पहला कदम ही गलत पड़ गया। अब तुम ठीक कभी न हो पाओगे। जब भी तुम किसी को दुःख देना चाहते हो, तुम दुःख पाओगे। जब तुम दुःख देने की आकांक्षा से भरे किसी विचार के पीछे जाते हो, तुम दुःख के बीज बो रहे हो। दूसरे को दुःख मिलेगा या नहीं मिलेगा, तुम्हें दुःख जरूर मिलेगा।” तुम अगर आज दुःख पा रहे हो तो बुद्ध कहते हैं, “कल बोए गए बीजों का फल है और अगर कल तुम चाहते हो कि दुःख न पाओ तो आज कृपा करना, आज बीज मत बोना।”

तुम्हारे मन में अगर किसी को दुःख देने का जरा सा भी भाव है तो तुम अपने लिए बीज बो रहे हो; क्योंकि तुम्हारे मन में जो दुःख देने का बीज है, वह तुम्हारे ही मन की भूमि में गिरेगा, किसी दूसरे के मन की भूमि में नहीं गिर सकता। बीज तो तुम्हारे भीतर है, वृक्ष भी तुम्हारे भीतर ही होगा। फल भी तुम्हीं भोगोगे। तुम क्रोधित हो, किसी पर क्रोध करके उसे नष्ट करना चाहते हो। उसे तुम करोगे या नहीं, यह दूसरी बात है; लेकिन तुमने अपने को नष्ट करना शुरू कर दिया। 

2. धैर्य 

एक बार भगवान् बुद्ध अपने अनुयायियों के साथ किसी गाँव में उपदेश देने जा रहे थे। उस गाँव के पूर्वी मार्ग में जगह-जगह बहुत सारे गड्ढे खुदे हुए मिले। बुद्ध के एक शिष्य ने उन गड्ढों को देखकर जिज्ञासा प्रकट की, “आखिर इस तरह गड्ढे के खुदे होने का तात्पर्य क्या है?”

बुद्ध बोले, “पानी की तलाश में किसी व्यक्ति ने इतने गड्ढे खोदे हैं। यदि वह धैर्यपूर्वक एक ही स्थान पर गड्ढा खोदता तो उसे पानी अवश्य मिल जाता। पर वह थोड़ी देर गड्ढा खोदता और पानी न मिलने पर दूसरा गड्ढा खोदना शुरू कर देता। व्यक्ति को परिश्रम करने के साथ धैर्य भी रखना चाहिए।”

3. चरैवेति, चरैवेति (चलते रहो, चलते रहो) 

रुको मत, पीछे लौटकर देखो मत। आगे की चिंता न करो। प्रतिपल बढ़े चलो, क्योंकि गति जीवन है; गत्यात्मकता जीवन है और जैसे पर्वतों से दौड़ती हुई नदी की धार एक-न-एक दिन चलते-चलते सागर तक पहुँच जाती है, ऐसे ही तुम भी चलते रहे तो परमात्मा तक निश्चित पहुँच जाओगे। न तो नदी के पास नक्शा होता है, न मार्गदर्शक होते हैं, न पंडित-पुरोहित होते हैं, न पूजा-पाठ, न यज्ञ-हवन, फिर भी पहुँच जाती है सागर तक। कितना ही भटके, कितने ही चक्कर खाए पर्वतों में, लेकिन पहुँच जाती है सागर। कौन पहुँचा देता है उसे सागर तक? उसकी अदम्य गति!

वह फिक्र नहीं लेती, सोच-विचार नहीं करती कि कितना भटकाव हो गया, कितना समय बीत गया। कितना और समय लगेगा, ऐसा अधैर्य नहीं पालती। मदमाती, मस्त, प्रतिपल आनंदमग्न। इससे बोझिल भी नहीं होती कि सागर अभी तक क्यों नहीं मिला? इसका संताप भी उसकी छाती पर भारी नहीं हो पाता। मिलेगा ही, ऐसी कोई गहन श्रद्धा, ऐसी कोई आस्था मिलना अनिवार्य है। जैसे बीज टूटता है एक परम श्रद्धा में कि फूल बनेगा ही, ऐसे ही नदी बहती है एक परम श्रद्धा में कि सागर मिलेगा ही। 

बढ़ते चलो, बहते चलो! गति में रहो! इतना भर ध्यान रहे, अटकना मत कहीं। भटको कितने ही, भटकना कितना ही, अटकना मत! कोई तट, कोई कूल-किनारा आसक्ति न बने। कितना ही सुंदर हो तट, गीत गुनगुनाते गुजर जाना। ठहर मत जाना, रुक मत जाना, किसी पड़ाव को मंजिल मत समझ लेना।

4. इच्छा-शक्ति

एक बार आनंद ने भगवान् बुद्ध से पूछा, “जल, वायु, अग्नि इत्यादि तत्त्वों में सबसे शक्तिशाली तत्त्व कौन सा है?”

भगवान् बुद्ध ने कहा, “आनंद! पत्थर सबसे कठोर और शक्तिशाली दिखता है, लेकिन लोहे का हथौड़ा पत्थर के टुकडे़-टुकड़े कर देता है, इसलिए लोहा पत्थर से अधिक शक्तिशाली है।”

“लेकिन लोहार आग की भट‍्ठी में लोहे को गलाकर उसे मनचाही शक्ल में ढाल देता है, इसलिए आग लोहा और पत्थर से अधिक शक्तिशाली है।”

“मगर आग कितनी भी विकराल क्यों न हो, जल उसे शांत कर देता है। इसलिए जल, पत्थर, लोहे और अग्नि से अधिक शक्तिशाली है।”

“लेकिन जल से भरे बादलों को वायु कहीं-से-कहीं उड़ाकर ले जाती है, इसलिए वायु—जल से भी अधिक बलशाली है।”

“लेकिन हे आनंद! इच्छा-शक्ति वायु की दिशा को भी मोड़ सकती है। इसलिए सबसे अधिक शक्तिशाली तत्त्व है—व्यक्ति की इच्छा-शक्ति।”

इच्छा-शक्ति से अधिक बलशाली तत्त्व कोई नहीं है। यदि किसी काम को अपनी इच्छा से किया जाए तो सफलता जरूर मिलती है। 

5. बदलाव के लिए एक पल ही काफी है 

एक पल एक दिन को बदल सकता है, एक दिन एक जीवन को बदल सकता है और एक जीवन इस दुनिया को बदल सकता है। जिस काम को करने में वर्तमान में तो दर्द हो, लेकिन भविष्य में खुशी, उसे करने के लिए काफी अभ्यास की जरूरत होती है। हमें उसके लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। मनुष्य को अगर अपने जीवन में खुशियाँ प्राप्त करनी हैं तो उसे न तो अपने अतीत में उलझना चाहिए, न ही अपने भविष्य की चिंता करनी चाहिए। मनुष्य को केवल अपने वर्तमान पर ही ध्यान देना चाहिए। अतीत में मत उलझो, भविष्य के सपने मत देखो, वर्तमान पर ध्यान दो। यही असली सुख का रास्ता है। 

6. अज्ञानी आदमी सदैव इच्छाओं से जकड़ा रहता है

दुःख व पीड़ा का कारण हैं इच्छाएँ। अगर मनुष्य इच्छाओं पर काबू कर ले तो जीवन में उसे किसी पीड़ा का सामना नहीं करना पड़ेगा। धरती पर जीवन गुजारने के लिए और अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए मनुष्य को कष्ट भोगना पड़ता है। इच्छाएँ, इंद्रियाँ, लगाव और लालच—इन कुछ कारणों से ही मनुष्य को पीड़ा होती है। मनुष्य के दुःख भोगने का कारण भी उसकी इंद्रियाँ हैं। अगर मनुष्य अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण पा सके तो उसके जीवन के सारे दुःख दूर हो जाएँगे। इंद्रियों का विनाश करने से दुःखों का विनाश होता है, साथ ही पीड़ा के कारण भी समाप्त होते हैं। अज्ञानी आदमी सदैव इच्छाओं से जकड़ा रहता है। इच्छा से क्रोध और बुराई पैदा होती है। क्रोध को प्रेम से, बुराई को अच्छाई से, स्वार्थ को उदारता से और झूठे व्यक्ति को सच्‍चाई से जीता जा सकता है। जो व्यक्ति अपने जीवन को समझदारी से जीता है, उसे मृत्यु से भी डर नहीं लगता। जिस व्यक्ति का मन शांत होता है, जो व्यक्ति बोलते और अपना काम करते समय शांत रहता है, वह वही व्यक्ति होता है, जिसने सच को हासिल कर लिया है और जो दुःख-तकलीफों से मुक्त हो चुका है। अज्ञानी आदमी एक बैल के समान है। वह ज्ञान में नहीं, आकार में बढ़ता है। 

7. उदार बनें

उदार हृदय, दयालु वाणी और सेवा व करुणा जीवन की वे बातें हैं, जो मानवता का नवीनीकरण करती हैं। सभी व्यक्तियों को सजा से डर लगता है। सभी मौत से डरते हैं। बाकी लोगों को भी अपने जैसा ही समझें। खुद किसी जीव को न मारें और दूसरों को भी ऐसा करने से मना करें। 

वह व्यक्ति, जो पचास लोगों से प्यार करता है, उसके पास खुश होने के लिए पचास कारण होते हैं। जो किसी से प्यार नहीं करता, उसके पास खुश रहने का कोई कारण नहीं होता। अगर आप किसी दूसरे के लिए दीया जलाते हैं तो यह आपके रास्ते को भी रोशन कर देता है। आप खुद अपने प्रेम और स्नेह के उतने ही हकदार हैं, जितना इस दुनिया में कोई भी अन्य व्यक्ति है। एक समझदार व्यक्ति अपने अंदर की कमियों को उसी तरह से दूर कर लेता है, जिस तरह से एक स्वर्णकार चाँदी की अशुद्धियों को चुन-चुनकर, थोड़ा-थोड़ा करके और इस प्रक्रिया को बार-बार दोहराकर दूर कर लेता है। हमें अपने द्वारा की गई गलतियों की सजा तुरंत भले न मिले, पर समय के साथ कभी-न-कभी अवश्य मिलती है। 

8. अप्प दीपो भव

बुद्ध का अंतिम वचन—अपना दीपक स्वयं बनना और तुम्हारी रोशनी में तुम्हें जो दिखाई पड़ेगा, फिर आस्था सहज होगी। 

एक ही बीमारी हो तो भी एक दवा काम नहीं करती, क्योंकि बीमार अलग-अलग, उनका इतिहास अलग-अलग। इसलिए बहुत बार यह होता है कि तुम बीमार हो, वही बीमारी है, सब लक्षण वही हैं, निदान वही है, तुम्हें भी पेनिसिलिन दी जाती है; दूसरे आदमी के भी प्रतीक व लक्षण वही हैं, रोग वही है, तुम बिल्कुल रोग की दृष्टि से एक जैसे हो। यंत्रों की जाँच, एक्स-रे, खून की परीक्षा—सब बराबर एक जैसी हैं। जैसे तुम एक ही मरीज हो, दो नहीं। फिर भी एक को पेनिसिलिन ठीक करती है, दूसरे को मुश्किल में डाल देती है। 

इसलिए पुराना सूत्र था चिकित्सा का–बीमारी का इलाज। अब वे कहते हैं—बीमार का इलाज। डोंट ट्रीट द डिजीज, ट्रीट द पेशंट। बड़ा कठिन है! क्योंकि तब तो हर मरीज का अलग से अध्ययन करना पड़ेगा। बीमारी काफी नहीं है। बीमारी के पीछे छिपे हुए व्यक्ति की खोज करनी पड़ेगी और हर मरीज को विशिष्टता से देखना पड़ेगा। 

क्योंकि कोई भी मनुष्य इकाई नहीं है। वह भिन्न, निजी व्यक्तित्व है। वह एक स्वतंत्र अस्तित्व है। उसकी बीमारी, उसके प्रश्न—सब अलग हैं। 

श्रद्धा पर भी कोई आधार रखा जा सकता है! अनुभव पर ही आधार रखा जा सकता है। अनुभव की छाया की तरह श्रद्धा उत्पन्न होती है। श्रद्धा अनुभव की सुगंध है और अनुभव के बिना श्रद्धा अंधी है। जिस श्रद्धा के पास आँख न हो, उससे तुम सत्य तक पहुँच पाओगे?