gitanjali book price


महाकाव्य का महत्व: 'गीतांजलि' नोबल पुरस्कार विजेता कवी रवींद्रनाथ टैगोर का प्रसिद्ध महाकाव्य है।

समाज के प्रति ज़िम्मेदारी: यह महाकाव्य समाज के मूल्यों और भावनाओं को उजागर करता है।

भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व: 'गीतांजलि' भारतीय संस्कृति और धार्मिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है।

सभ्यता का ध्यान: इसमें मानवता, संवेदनशीलता, और समाजिक न्याय के महत्वपूर्ण सिद्धांतों का मंथन किया गया है।

प्रेरणादायक रचना: यह महाकाव्य हर व्यक्ति को जीवन के महत्वपूर्ण मुद्दों पर सोचने के लिए प्रेरित करता है।

भावनात्मक संवेदनशीलता: गीतांजलि में उच्च भावनात्मक संवेदनशीलता का वर्णन है, जो पाठकों के दिलों को छूती है।

साहित्यिक महत्व: यह महाकाव्य भारतीय साहित्य के महत्वपूर्ण भाग के रूप में माना जाता है और उसकी महत्वपूर्ण कड़ी में स्थान है।

सांस्कृतिक विरासत का प्रतिनिधित्व: गीतांजलि सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण प्रतिनिधित्व करता है और उसकी महत्वपूर्ण बातें आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं जितनी कि इसके रचना के समय थीं।


Rabindranath Tagore was born on May 7, 1861, in Calcutta, India, which was then under British rule.

Rabindranath Tagore ( 7 May 1861 – 7 August 1941), also known by his pen name Bhanu Singha Thakur (Bhonita), and also known by his sobriquets Gurudev, Kabiguru, and Biswakabi, was a Bengali poet, writer, music composer, and painter from the Indian subcontinent. He reshaped Bengali literature and music, as well as Indian art with Contextual Modernism in the late 19th and early 20th centuries. Author of the "profoundly sensitive, fresh and beautiful verse" of Gitanjali, he became in 1913 the first non-European to win the Nobel Prize in Literature. Tagore's poetic songs were viewed as spiritual and mercurial; however, his "elegant prose and magical poetry" remain largely unknown outside Bengal. He is sometimes referred to as "the Bard of Bengal".

गीतांजलि ‘गीतांजलि’ महान् रचनाकार नोबल पुरस्कार विजेता कवींद्र रवींद्रनाथ टैगोर का प्रसिद्ध महाकाव्य है। एक शताब्दी पूर्व जब इसकी रचना हुई, तब भी यह एक महाकाव्य था और एक शताब्दी के बाद भी यह महाकाव्य है तथा आनेवाली शताब्दियों में भी यह एक महाकाव्य ही रहेगा। इस महाकाव्य की उपयुक्‍तता तब तक रहेगी जब तक मानव सभ्यता जीवित है। उन्नीसवीं सदी में विश्‍व साहित्य के क्षेत्र में भारतीयों की पहचान इस महाकाव्य के माध्यम से हुई। यह महाकाव्य हर भारतीय की अनुभूतियों से अंतरंग रूप से जुड़ा है। यह अपने आप में एक अनूठा महाकाव्य है, जो साधारण व्यक्‍ति से लेकर प्रकांड विद्वान् के लिए समान रूप से प्रेरणादायी है। इस काव्य की रचना न किसी विशेष समाज, प्रांत या देश विशेष के लिए है। यह महाकाव्य मानव संस्कृति एवं सभ्यता के लिए सदैव प्रेरणा का स्रोत रहेगा। किसी महाकाव्य का अनुवाद दूसरी भाषा में करना तथा उसी भाषा में उसका शाब्दिक अर्थ मात्र करना काफी नहीं होता। अनुवाद से पूर्व यह आवश्यक है कि उस महाकाव्य में अंतर्निहित भावों को समझकर सम्यक् रूप में उसका मंथन किया जाए। गीतांजलि, जिसका अनुवाद विश्‍व की सभी प्रमुख भाषाओं एवं सभी भारतीय भाषाओं में हो चुका है, ऐसे महाकाव्य का फिर से अनुवाद करने का साहस जुटाना अपने आप में अत्यंत प्रशंसनीय कार्य है।